#H508
आदमी बन जीता हूॅं।
काम से काम रखता हूॅं ।
धैर्य भी रखता हूॅं।
हर दांव यहां समझता हूॅं ।
कौन कहां तक है पानी में
सबका नाप समझता हूॅं।
काम में सुबह, शाम,
रात नहीं देखता हूॅं।
आदमी हूॅं
आदमी ही बन जीता हूॅं।
जब जिस्म की खुशबू सूंघ लेता हूॅं।
खुशबू से महक जाता हूॅं।
खूबसूरती पर मरता हूॅं।
समय समय पर
प्रसंशा भी करता हूॅं।
सुरक्षा भी देता हूॅं।
हवा हूॅं मैं।
बदन छू लेता हूॅं।
जब नजरें उठाता हूॅं।
आंचल उड़ाता हूॅं।
जुल्फें लहराता हूॅं।
अपने नाम को
सार्थक बनाता हूॅं।
दिल की बात यों ही
साथियों से करता रहता हूॅं।
करना, जाना तो कुछ नहीं,
यों ही हंसी ठिठोली के मुद्दे उठाता हूॅं।
गुलदस्ता सजाता हूॅं।
फूलों की महक पाता हूॅं।
माली बनकर
पौधों को बढ़ाता हूॅं।
फूल निहारने के लिए होते हैं
सूंघने के लिए होते हैं।
न तोड़ने के लिए होते हैं
न कुचलने के लिए होते हैं।
न मरोड़ने के लिए होते हैं।
बखूबी मैं यह समझता हूॅं ।
आदमी हूॅं आदमी बन जीता हूॅं।
जाम उठाता हूॅं।
कभी -कभी धुआं उड़ाता हूॅं।
अक्खड़ देशी हूॅं मैं।
खूबसूरती को चर्चा में लाता हूॅं।
आदमी हूॅं आदमी बन जीता हूॅं।
देवेन्द्र प्रताप "नासमझ"
दिनांक 29 मई 2025,©
रेटिंग 9.5/10
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