#H472
हर कोई भिखारी है (Everyone is a Beggar)
कहने की बस की बात नहीं,
पर मन से मैं प्रयास करूँगा,
इनके साथ न्याय करूँगा।
बेघर, बेसहारा, अकेला,
बिछड़ा हुआ, भटका हुआ,
मजबूर, लाचार, टूटा हुआ —
आख़िर हाथ फैला ही देता है,
आत्मसम्मान को मार देता है।
मंदिर, सड़क, टोल, स्टैंड, स्टेशन,
चौराहे, दरगाह पर बैठ जाता है,
जब काम नहीं पाता है।
आत्महत्या नहीं कर पाता है,
फिर पेट की आग बुझाता है।
जाम में शीशा वे खटखटाते हैं,
कुछ देने की गुहार लगाते हैं।
कुछ लोग दे देते हैं,
कुछ आगे बढ़ जाते हैं।
जब किसी को आते देखते हैं,
तो खुला हाथ सामने फैलाते हैं।
कटोरा भी बढ़ा देते हैं,
कुछ पाने की आस लगाते हैं।
कोई लंगड़ाता है,
कोई अधनंगा दिखता है,
कोई अपंग होता है,
कोई चोट दिखाता है,
कोई मासूम की भूख दर्शाता है।
कुछ ढोंगी,
स्वस्थ होते हुए भी,
खुद को ऐसा दिखलाते हैं।
पता लगने पर
जनता को अपने दान पर
अफ़सोस करवाते हैं।
जब कोई सिक्का डाल देता है,
वो दुआएँ उसको देता है।
केवल तुमसे वह लेता नहीं है,
तुम्हें संतोष भी दे जाता है।
घरों में भी जाते हैं,
ज़ोर से आवाज़ लगाते हैं।
खाना, आटा, पैसा, फल,
कपड़े, जूते ले जाते हैं।
घर से देकर ही लौटाते हैं,
ऐसे संस्कार हमें सिखाए जाते हैं।
रहने को घर नहीं पाते हैं।
सड़क किनारे, फुटपाथ,
मंदिरों के बाहर,
रेलवे स्टेशनों पर सोते हैं।
कभी-कभी फुटपाथ पर
गाड़ियों से कुचल भी जाते हैं।
सड़क पर टक्कर में मर जाते हैं,
इलाज नहीं करवा पाते हैं।
शिक्षित नहीं हो पाते हैं,
स्वच्छ पानी नहीं पाते हैं,
शौचालय नहीं पाते हैं।
कई-कई दिनों तक
नहा नहीं पाते हैं।
गंदगी में जीवन बिताते हैं,
मनोबल खोते जाते हैं।
कूड़ा भी बीनते हैं,
खाना ढूँढते हुए भी मिल जाते हैं।
वहाँ कुत्ते भी साथ में मिलते हैं।
इंसान होने का हक़
समाज से नहीं पाते हैं।
ढंग से अंतिम संस्कार नहीं पाते हैं।
अपनी पहचान नहीं बना पाते हैं।
कुछ अपराधी
बच्चों के हाथ-पैर तोड़कर
चौराहों पर भीख मंगवाते हैं।
भिखारियों का रैकेट चलाते हैं।
अपराध में भी शामिल हो जाते हैं।
सरकारी सुविधाओं तक नहीं
पहुँच पाते हैं।
विपन्नता में जीवन बिताते हैं।
जानवर तो घरों में पाले जाते हैं,
पर इंसान यहाँ-वहाँ मिल जाते हैं —
वो भिखारी बन जाते हैं।
देखो तो, हर इंसान भिखारी है —
कोई ऊपर वाले से माँग रहा है,
कोई प्यार माँग रहा है,
कोई साधन माँग रहा है,
कोई सम्मान माँग रहा है।
कोई धंधा माँग रहा है,
कोई संतान माँग रहा है।
कोई भगवान से चाह रहा है,
सुबह-शाम अर्ज़ी लगा रहा है।
कोई पा जाता है।
कोई निराश हो जाता है।
कोई संतोष कर लेता है।
देवेन्द्र प्रताप "नासमझ"
दिनांक: 19 जुलाई 2025 ©
रेटिंग 9.8/10
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