#H247
जनता की दुविधा (Public's Dilemma)
वो नफरत फैलाऐ
ऐसा कोई और बताऐ
खुद प्यार की दुकान चलाऐ।
धन्धा दोनों का
चकाचक चलता जाऐ।
जनता पिसती जाऐ
हर बार वादों के बाजार में
सस्ती दर में ठगी जाऐ।
कहीं खटाखट की आवाज आऐ।
कोई विश्व गुरु बनने की बात से
लोगों का दिमाग गुमाऐ।
मंहगाई, बेरोजगारी, पर
कोई भी रणनीति न लाऐ।
भ्रष्टाचार में संलिप्त होकर भी
न्यायालय पर संदेह जताऐ।
जाति, धर्म, की छाया से देश को,
कोई बाहर लाने का साहस न जुटाऐ।
लोकतंत्र है यारो,
संख्याबल से ही गंगा बहती जाऐ।
फिर चाहे, उल्टी ही क्यों न बहती जाऐ।
किसी का बस चले
तो देश बेच आऐ।
आतंकी को मसीहा बताऐ।
दुश्मन से गलबाहियाँ डाले।
प्यार की दुकान चलाने का
खूब दावा भरवा वाऐ।
संविधान बचाने की बात करे, वो,
जीवन जमानत पर कटता जाऐ।
खुद की जाति का निर्धारण नहीं है
जाति जनगणना की बात दोहराऐ।
दूजे की जाति बार - बार बताऐ।
प्यार की बात करते - करते
नफरत फैलाने की दुकान सजाऐ।
दूजा अच्छे दिनों के सपनों के वायदे में,
जनता के सपनों को हरता जाऐ।
जनता पिसती जाऐ।
एक हाथ में काना, दूजे में अंधा।
अब तो जनता को भगवान बचाऐ।
जनता की दुविधा से
उसको अब कौन बचाऐ ?
लोकतंत्र तो भ्रष्टाचारियों से
हर बार ठगा जाऐ।
नासमझ को लोकतंत्र समझ न आऐ।
देवेन्द्र प्रताप "नासमझ"
दिनांक 12 सितम्बर 2024,©
रेटिंग 9.5/10