#H114
मुक्ति (Salvation)
शरीर से मोह हो जाता है।
शरीर ही दर्द बताता है
चोट लगने पर कराहता है।
शरीर सौन्दर्य दिखलाता है
शरीर ही से शरीर
घृणा करवाता है।
शरीर मुक्ति से भटकाता है।
शरीर तृष्णा में रम जाता है
शरीर भूख बताता है
शरीर लालच जगाता है
शरीर धनअर्जन में फंस जाता है।
यह मुक्ति से दूर भगाता है।
शरीर मेरा है का, भाव जगाता है
शरीर तेरा है, यह कहलवाता है
शरीर संतान से वंश बढ़ाता है
अपनापन मुक्ति से भटकाता है।
शरीर भयग्रस्त हो जाता है
शरीर हार मान जाता है
शरीर जीत का भाव जगाता है
शरीर मान दिलवाता है
शरीर अपमान का कारण बन जाता है
डर मुक्ति से भटकाता है।
शरीर से पहचाना जाता है
शरीर से शक्ति पाता है
शरीर में ही कष्टों को पाता है
शरीर ही तो सब कष्टों का
मूल माना जाता है
मुक्ति पाने में बाधा बन जाता है।
शरीर है पर इनसे मोह नहीं
तो जीवन में विरक्ति लाता है
विरक्ति सबसे बढ़ी शक्ति है
विरक्ति से पहले भक्ति आता है।
विरक्ति ही मुक्ति है।
जीते जी जो जीवन में विरक्ति पाता है
वही जीवन में, जीते जी मुक्ति पाता है।
वरना शरीर का त्यागकर
हर कोई मुक्ति पाता है।
ऐसा कहलाया जाता है।
जो इस जग से मुक्त नहीं हो पाता है।
फिर वापस इस जग में आता है।
यह चक्कर यों ही चलता जाता है।
अगर मुक्त हुआ तो
परमात्मा में विलीन हो जाता है।
सनातन में
इसको ही मुक्ति माना जाता है।
"नासमझ" तो बस इतना समझे,
जिसकी जैसी आस्था,
वैसा ही मार्ग अपनाता है।
दूसरों को कष्ट दिऐ बिना जीवन जियो।
यही मुक्ति मार्ग कहलाता है।
संतोष ही मुक्ति है
"नासमझ" तो बस इतना पाता है।
देवेन्द्र प्रताप "नासमझ"
दिनांक 06 मार्च 2024, ©
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